जो ठहर जाये तो आँखों में शरर जैसा है
जो ठहर जाये तो आँखों में शरर जैसा है
और जो टपके तो वही अश्क गुहर जैसा है
पूछते क्या हो अंधेरो के मआनी उस से
जिसकी रातों का भी अंदाज़ सहर जैसा है
हूबहू ज़ीस्त की पुरखार रह-ए-गर्दिश का
नक़्श हर एक तेरी राहगुज़र जैसा है
दिल के हर ज़ख्म सितारें हैं सितारों में कोई
ज़ख्म ऐसा भी है वाहिद जो क़मर जैसा है
आँधियाँ आई, गयी,अपनी जगह से न हिला
अज़्म मेरा किसी मज़बूत शजर जैसा है
अपने अंदर तो फ़रिश्तें सी सिफत रखता है
पर बज़ाहिर वो कोई आम बशर जैसा है
वोही गिरदाब वोही मौज-ए-तलातुम 'अस्लम'
तेवर-ए-दरिया किसी शोख नज़र जैसा है
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